तासिर कुछ सांसों की
तासिर भले ही अलग हो दवाई की,
"दवाई" दवाई ही रहती है,
कुछ भी कहो, दवाई से ही
अपनी तासिर बदलती है।
खुशनुमा सवेरे से सूरज की
गरमी नही पता चलती,
ठंडी रातो में फूलोंकोभी
स्वातिबिन्दु पाने मे कशमकश होती है।
काली रातो में आंखोंकी
अमी पता ही नहीं चलती।
कहा, नहिवत मत सोचो,
देश भी इंसान के कर्म से चलता है।
मनुष्य हूँ, मैने सोचा था, करूँगा,
लेकिन, किन्तु, परंतु ने बताया
साँसे भी कुछ लेके कुछ छोडती है।
Jigar Mehta / Jaigishya
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