Thursday, 13 June 2019

महेताबी उजाला

1977 जुलाई की 31 तारीख
कुछ नही , बस एक बच्चे का जन्म।
बात जिन्दगीकी सांसो की।
हाथों की लकीर की।
अम्मा अब्बा की।
वालिदी महजमे की।
सिर्फ मजहबी बात नही।
कायनात के फ़साने की।
कुदरती करिश्मे की।
41 साल बाद मिलने वाली,
नई पहचान की।
"क्या नाम है?"
जिक्र गहरे शब्दों के सवाल का।
उम्र भर के तजुर्बेकार,
और ताजा बच्चा,
दशांगुल से परे
मृत अमृत, व्यक्त अव्यक्त,
लीबासी ज़ोला छोड़ा।
खुदके शब्द पकड़े।
समय को जाना।
तय किया, तहजीब सम्भालू।
वास्ता दिये बगैर
जो है उसे संभालू।
या फिर सम्भाली हुई,
न मिटती हुई,
धरोहर बांटू?
पता चला कि
कई लोग अपने ही
मज़ाक मज़ाक में
मार डालते है।
सब छोड़के
जो है सो है कि तरह
जीना ही सीखना चाहा।
बस यही सूरज,
महेताबी उजाले से
खुदकी खातून,
लखते जिगर बच्ची,
और अम्मी को
एक मजबूत जोड़ देगा।
खुदकी कोशिश जारी है।
अब्बा को भी एकस बेबस
और DOG पता था।
बाकी तो अल्लाह को पता है।
बच्चे को कब रुलाना है।
कब हसाना है।
Jigar Mehta / Jaigishya

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