वेदोक्त कथनानुसार, बोलो तो सबकुछ हीन होता है। जबकि जब कोई देव या राक्षस क्रिया करता है तो वह या उसके मंत्र यजन का आगाज़ हमे पता नही चलता, या "यहवह" शब्द में सिर्फ मुह ही खुला होता है हमारा। हमे तो आगाज़ ही नही होता कि हमारे सातवें आसमान में क्या हो रहा है। यहाँ सातवें आसमान का मतलब हमारी त्वचा जिसे संस्कृतमे पुरुष के लिये त्वक शब्द उपयुक्त है।
मैन एक हिंदी फिल्म देखी थी, "रुद्राक्ष" जिसमे पात्रों के नाम पता नही पर कबीर बेदी जो संजय दत्त का पिता बताया है वह कहता है कि "हमे 'र' से शुरू होने वाले शब्दों का श्लोक का उच्चारण कभी नही करना चाहिये" राक्षस वेद पूरा "र" आयाम पर निर्धारित है।
"र" अक्षर बोलनेसे हमारी जिभ, तीन बार, मुँह को खुली दशा में रख कर मुँहके अंदर हिलती है। जिससे भारी कम्पन होता है जो "थ" प्रकृति को मुनासिब नही।
भागवद कथा में भी तीन प्रकार के वक्ता और श्रोता का उल्लेख है।
उच्च
जो बोले कहे बगैर आंखों से समझते है।
मध्यम
जो सिर्फ निर्देशन से समझते है।
निम्न या हीन
जो किसीके बोलने सुनने के बाद ही समझते है।
यहाँ हमारी बात देव और दैत्य की है।
यहाँ हमारी बात ऋषि और राक्षस की है।
यहाँ हमारी बात मानव और दानव की है।
बात जो नही कोई हो पर जिससे मनुष्य एवम प्राणी मात्र जाति का सुख निहित हो ऐसी बात करने-कहने-सुनने वाला देव, ऋषि, मानव है या तो विरुद्ध प्रकृति वाला दैत्य, राक्षस , दानव कहा जा सकता है।
ब्रह्म सबका है, पहचानो और उपयोग करने का तरीका या उपयोग करने से यदि सबके लिये अच्छा काम आये तो ब्रह्म देव नही तो किसी एक के अंगत काम आये तो ब्रह्म राक्षस हम कह सकते है।
परा अपरा, क्षराक्षर , प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष, परोक्ष अपरोक्ष सभी ब्रह्म से जुड़े हुए है। ब्रह्म को सिर्फ क्षेत्र क्षेत्रग्न से समझने की दूरी है।
जिगर महेता / जैगीष्य
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