विवरण
शतपथ ब्राह्मण शुक्ल यजुर्वेद का ब्राह्मणग्रन्थ है। ब्राह्मण ग्रन्थों में इसे सर्वाधिक प्रमाणिक माना जाता है। शतपथ ब्राह्मण, शुक्ल यजुर्वेद के दोनों शाखाओं काण्व व माध्यन्दिनी से सम्बद्ध है। रचयिता याज्ञवल्क्य रचनाकाल ई. पू. 24वीं शताब्दी।
माध्यन्दिनी
इसमें 14 काण्ड, 100 अध्याय, 438 ब्राह्मण तथा 7624 कण्डिकाएँ हैं।
काण्व
इसमें 17 काण्ड, 104 अध्याय, 435 ब्राह्मण तथा 6806 कण्डिकाएँ हैं।
महत्त्वपूर्ण आख्यान इन्द्र-वृत्र-युद्ध, योषित्कामी गन्धर्व, सुपर्णी तथा कद्रू, च्यवन भार्गव तथा शर्यात मानव, स्वर्भानु असुर तथा सूर्य, वेन्य, असुर नमुचि एवं इन्द्र, पुरूरवा-उर्वशी, केशिन्-राजन्य, मनु एवं श्रद्धा तथा जल-प्लावन आदि के आख्यान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं।
शतपथ-ब्राह्मण के अनुसार सृष्टि के प्रारम्भ में, ब्रह्म के दो रूप थे- मूर्त और अमूर्त। इन्हें ‘यत्’ और ‘त्यत्’ अर्थात सत् तथा असत् कहा जा सकता है-
‘द्वै वाव ब्रह्मणो रूपे।
मूर्त्त चैवामूर्त्तम् स्थितं च यच्च।
सच्च त्यच्च’।
इसके रचयिता याज्ञवल्क्य माने जाते हैं।
शतपथ के अन्त में उल्लेख है- ‘ष्आदिन्यानीमानि शुक्लानि यजूशि बाजसनेयेन याज्ञावल्येन ख्यायन्ते।’
शतपथ ब्राह्मण में 14 काण्ड हैं जिसमें विभिन्न प्रकार के यज्ञों का पूर्ण एवं विस्तृत अध्ययन मिलता है।
6 से 10 काण्ड तक को शाण्डिल्य काण्ड कहते हैं। इसमें गंधार, कैकय और शाल्व जनपदों की विशेष चर्चा की गई है। अन्य काण्डों में आर्यावर्त के मध्य तथा पूर्वी भाग कुरू, पंचाल, कोसल, विदेह, सृजन्य आदि जनपदों का उल्लेख हैं।
शतपथ ब्राह्मण में वैदिक संस्कृत के सारस्वत मण्डल से पूर्व की ओर प्रसार होने का संकेत मिलता है। शतपथ ब्राह्मण में यज्ञों को जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण कृत्य बताया गया है। हल सम्बन्धी अनुष्ठान का विस्तृत वर्णन भी इसमें प्राप्त होता है।
पाण्डव कुलक पुत्र परिक्षितस्य पुत्र जनमेजय।
अश्वमेध यज्ञ के सन्दर्भ में अनेक प्राचीन सम्राटों का उल्लेख है, जिसमें जनक, दुष्यन्त और जनमेजय का नाम महत्त्वपूर्ण है।
समस्त ब्राह्मण-ग्रन्थों के मध्य शतपथ ब्राह्मण सर्वाधिक बृहत्काय है। शुक्लयजुर्वेद की दोनों शाखाओं-माध्यान्दिन तथा काण्व में यह उपलब्ध है। यह तैत्तिरीय ब्राह्मण के ही सदृश स्वराङिकत है। अनेक विद्वानों के विचार से यह तथ्य इसकी प्राचीनता का द्योतक है।
शतपथ मतलब100 रास्ते। शत मतलब१००, और पथ मतलब रास्ता।
अलग तौरसे संस्कृत मातृका और अग्निपुराण एकाक्षर कोष से सोचे तो
“श” शिवशक्ति का शून्य के साथ का यजन ।
“त” प्रजनन से छुटा हुआ ।
“प” पंचमहाभूत शरीर वाला नया शरीर।
“थ” जो अपनी बात पर अडग या स्थिर हो।
युधिष्ठिर की शब्द संधि देखें तो, या शब्द का चयन से अयन करे तो
“मनुष्यके अपने पास जोभी कुछ हो उसके ज्ञान की सत्यता से स्थिर रहने वाला”
जय गुरुदेव दत्तात्रेय
जय हिंद
जिगर महेता / जैगीष्य
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