स्वस्ति मंत्र विचार विस्तार
ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः।
स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः।
स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
“स्वस्ति न:” सामान्य है और बाकी शब्द मातृका अर्थ के अनुसार बदलाती है। यहां संस्कृत के खोडाक्षर लिखने में असमर्थ होते हुए संधि विग्रह कुछ ऐसे पढ़े। स्व + अस्ति (हस्ति व्याप्त होती है पर “अ” कार रूप से एक जगह पर स्थायी पंच महाभूत शरीर)
न: का मतलब हमारी व्याप्त ओरा लिये से इंद की मतलब तेज की बात है।
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इन्द्र जो रूप पर्याय से लिया है, वही वृद्ध है, पर वही कुछ कहता है। यहां वृद्ध मतलब आवृत उर से कुछ ज्ञान धारण किया हुआ। श्रवा मतलब “अ” कार रूप से सुनने वाला।
पूषा विश्ववेदाः मतलब भी बड़ा है।
“पू” मतलब सबसे बड़ा रक्षक जो “अष” है, जो कभी खत्म नही होता है। वही विश्व मे वेद रूप से व्याप्त है। वैसे भी वेद को अपौरुषेय रूपसे नवाज़ा है।
अ+स्त + अक्षर + यो अरिष्टनेमि:।
स्त मतलब सुंदर रूपसे छूटा हो पर दृष्टि में पश्य हो। अक्षर को ऊर्जा स्वरूप कहा है। स्वामीनारायण अक्षर पुरुषोत्तम मन्दिर जग विख्यात है। यो मतलब जिसने किसीको सम्भला है उसका यजन।
मुख्य शब्द “अरिष्टनेमि” अर इष्ट नम: इ।
अर मतलब बहता हुआ यानीकी सजीव। इष्ट मतलब सबसे अच्छा। नम: यानी प्रणाम, वहभी इ मतलब इच्छुक हेतुक वीशिष्ट प्रावधान सह।
बृहस्पतिर्दधातु बृहस्पति गुरु है पर कुछ इस तरह से “ब” स्थान से मतलब सजीव के सिकुड़ते हुये स्वरूप को पश्य करता हुआ जहा पर “र” अभीभी कुछ मात्रा में सजीव रूपसे बाकी है। वही व्याप्त रूपमे दिखकर अपने इर मतलब शरीर से अपने शिष्य जो सामने है उसे कुछ ज्ञान धातु = (द+द= ध) + अत +उ। यहां कुछ बाकी हु कृपा से। वैसे तो कई मतलब है पर यहां ……..
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
जय गुरुदेव दत्तात्रेय
जय हिंद
जिगर महेता / जैगीष्य
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