Monday, 2 November 2020

राष्ट्र सूक्त अथर्ववेद 19, 24

राष्ट्र सूक्त अथर्ववेद अध्याय १९,  पाठ २४

येन देवं सवितारं परि देवा अधारयन् । 
तेनेम ब्रह्मणस्पते परि राष्ट्राय धत्तन ॥१॥

हे ब्रह्मणस्पते ! देवों ने जिस प्रकार सवितादेव को चारों ओर से धारण किया, उसी विधि से इस महान् शान्ति के अनुष्ठाता यजमान को राष्ट्र की सुरक्षा के लिए सन्नद्ध (तत्पर) करें ॥१॥ - अथर्ववेद



परीममिन्द्रमायुषे महे क्षत्राय धत्तन । 
यथैनं जरसे नयाज्ज्योक्क्षत्रेऽधि जागरत्॥२॥

इन्द्रदेव इस साधक को आयुष्य और क्षात्र तेज की प्राप्ति के निमित्त प्रतिष्ठित करें । यह साधक वृद्धावस्था तक पहुँचे तथा जागरूकता के साथ क्षात्र धर्म में तत्पर रहे ॥२॥ - अथर्ववेद



परीममिन्द्रमायुषे महे श्रोत्राय धत्तन । 
यथैनं जरसे नयाज्ज्योक्श्रोत्रेऽधि जागरत्॥३॥

सोमदेव इस साधक को दीर्घ आयु, महान् ज्ञान, तेजस्विता अथवा यशस्विता के लिए परिपुष्ट करें। यह साधक वृद्धावस्था तक श्रोत्रादि इन्द्रियों की शक्ति से सम्पन्न हो ॥३॥ - अथर्ववेद



परि धत्त धत्त नो वर्चसेमं जरामृत्युं कृणुत दीर्घमायुः ।
बृहस्पतिः प्रायछद्वास एतत्सोमाय राज्ञे परिधातवा उ ॥४

देवगण इस (शिशु) को वह आवरण धारण कराएँ, हमारे इस बालक को तेजस्विता सम्पन्न कराएँ, इसके जीवन में वृद्धावस्था के बाद ही मृत्यु आए, इसी परिधान को बृहस्पतिदेव ने राजा सोम को भेंट किया था ॥४॥ - अथर्ववेद



जरां सु गछ परि धत्स्व वासो भवा गृष्टीनामभिशस्तिपाउ।
शतं च जीव शरदः पुरूची रायश्च पोषमुपसंव्ययस्व ||५||

हे साधक ! आप वृद्धावस्था तक सकुशल रहें । इस जीवनरूपी वस्त्र को धारण किये रहें और प्रजा को विनाश से बचाए रहें । सौ वर्ष तक जीवन जीते हुए धन-सम्पदा से युक्त होकर परिपुष्ट रहें ॥५॥ - अथर्ववेद



परीदं वासो अधिथाः स्वस्तयेऽभूर्वापीनामभिशस्तिपाउ । 
शतं च जीव शरदः पुरूचीर्वसूनि चारुर्वि भजासि जीवन् ॥६॥

हे साधक ! आपने इस वस्त्र को कल्याणकारी भावना से धारण किया है, इससे आप गौओं को विनाश से बचाने वाले बन चुके हैं। सौ वर्ष की पूर्ण आयु का उपभोग करें, वस्र से युक्त रहते हुए श्रेष्ठ धन- सम्पदा को परिवारों, स्वजनों एवं मित्रों में बाँटते रहें ॥६॥ - अथर्ववेद



योगेयोगे तवस्तरं वाजेवाजे हवामहे । 
सखाय इन्द्रमूतये ||७||

हम सभी मित्र, प्रत्येक उद्योग और प्रत्येक संग्राम में एकत्र होकर, बलशाली इन्द्रदेव को अपने संरक्षण के लिए आवाहित करते हैं ॥७॥ - अथर्ववेद



हिरण्यवर्णो अजरः सुवीरो जरामृत्युः प्रजया सं विशस्व। 
तदग्निराह तदु सोम आह बृहस्पतिः सविता तदिन्द्रः।।८

हे साधक ! आप स्वर्णिम कान्ति से युक्त रहते हुए बुढ़ापे से रहित श्रेष्ठ सन्तति से सम्पन्न, जरावस्था के बाद मृत्यु को प्राप्त करने वाले, पुत्र भृत्यादि के साथ इस घर में विश्राम करें। अग्निदेव, सोमदेव, बृहस्पतिदेव, सविता और इन्द्रदेव भी इस तथ्य का अनुमोदन करते हैं ॥८॥ - अथर्ववेद


इति अथर्ववेदे राष्ट्र सूक्त सम्पूर्णम।

इति अथर्ववेदे राष्ट्र बल सूक्त।

भद्रमिछन्त ऋषयः स्वर्विदस्तपो दीक्षामुपनिषेदुरग्रे । ततो राष्ट्रं बलमोजश्च जातं तदस्मै देवा उपसंनमन्तु ॥१॥
- अथर्ववेदः अध्याय १९ पाठ ४१ नाम : राष्ट्र बल सूक्त

सबके हितचिन्तक, आत्मज्ञानी श्रेष सृष्टि के प्रारम्भ में तप और दीक्षादि नियमों का पालन करने लगे। उसी से राष्ट्रीय भावना, बल और सामर्थ्य की उत्पत्ति हुई । अतएव ज्ञानी लोग उस (राष्ट्र के समक्ष विनम्र हों (राष्ट्रसेवा करें) ॥१॥
- अथर्ववेद

जय गुरुदेव दत्तात्रेय
जय हिंद

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