Monday 5 October 2020

महाभारत में यज्ञ याग यजन प्रावधान

महाभारत में जिन यज्ञों का उल्लेख है उनके नाम ये हैं-अश्वमेध, राजसूय, पुण्डरीक, गवामयन, अतिरात्र, वाजपेय, अग्निजित् एवं बृहस्पति सब इन यज्ञों से अश्वमेध एवं राजसूय का ही किञ्चिद्विस्तृत वर्णन मिलता है शेष का केवल नाम भर ही आया है महाभारत के दो राजसूय प्रसिद्ध हैं । 

एक तो महाराज युधिष्ठिर ने किया और दूसरा श्रीकृष्ण ने अश्वमेध तो अनेक किये जिनका विस्तारपूर्वक उल्लेख महाभारत के पर्षों में बिखरा पड़ा अकेले शान्तिपर्व में ही कितने ही धर्मात्माराजाओं के अनेक अश्वमेध यज्ञों का उल्लेख है । 

दृष्टान्त हम विविध दे सकते है पर नाम रूप यज्ञ का प्रावधान हमे समझना जरूरी होता है। ओर वह संस्कृत मातृका ओर अग्निपुराण एकाक्षर कोष ओर अक्षर चिह्न के रूपसे समझ सकते है।


अश्वमेध यज्ञ

सजीव, सप्त कुंफलिनी यानी सप्त अश्व वाले घोड़े के रथमे सुषुप्त मनुष्य को जब कोई आचार्य रूप सारथी सम्भालते है तो वह ब्रह्म के द्विज आयाम में कंकण की तरह गोल हो जाता है। एकही पहिये वाले चक्र रूपी रथ में ब्रह्मांड भ्रमण से हनुमानजी को गतिमय रूपसे ज्ञान देता है, जो वायु बिचरन से जल एवं पृथ्वी पर "थ" रूपको समझने वाले ऋषि लोगों को समजाते है। लोग अश्व मेघ को न जाने क्याक्या समझते है।



राजसूय यज्ञ

यहां सूर्य नही पर सूय है। जैसे कि "समय" वैसे ही सउय । र आयाम बगैर का  "अ" या "ब " का जीव स्वरूप , जिसे स्वर्ग के समीप  या स्वर्ग को सह जीवन प्राप्त करना है वह व्यक्ति। 
उदाहरण के तौर पर विष्णु ने यज्ञ में कमल का फूल न मिलने पर आंख दी थी वह एक सोचनीय बात है कि स्व अर्ग या अर्घ्य  कितनी बड़ी बात है। 
जैन लोगों को संथारा मूलभूत बात मालूम होगा।



पुण्डरीक यज्ञ

उ प अंड इर क़
उप मतलब छोटा या छोटी 
अंड शब्द से महत्तम लोग अवगत है।
इर मतलब शरीर या इच्छा वाला सजीव मनुष्य
क मतलब निर्देशानुसार निश्चित क्षेत्र की बात।

पुण्डरीक नाम इंद्र का है जिसे यज्ञ में स्थान नही फिरभी वह उचित तोर पर तो नामोल्लेख किया है। 

पंच तत्व वाले शरीर का अण्ड से शरीर प्राप्त करने के लिए निश्चित क्षेत्र का यजन वहभी यज्ञ से होमात्मक  द्रव्य के पर्याय के रूपमे।
जैन में आयंबिल की बात भी है। आयंबिल मतलब जीवन भर या कुछ महीने या कुछ दिन नियत या निश्चित धान को ही खुराक से भक्षण से शरीर का प्रोक्षण करना या किसीसे कराना ।  यज्ञ में होता यानी आचार्यजी को मालूम होता है।



गवामयन यज्ञ

ग्वालियर प्रदेश मध्य प्रदेश में खूब प्रचलित है। 
यहां "ग्वा" का मतलब वा + ग 
संस्कृत में खोडाक्षर वाले स्वर व्यंजन होते है। 
आधा क  + आधा क = ग 
जैसेकि आधा त + आधा त = द बृहत्कथा या बृहन्नला में बृहद शब्द का प्रावधान सिर्फ बृह या बृहत के रूपमे है। वैसे ही यहाँ संस्कृत में  वाक शब्द है। जैसे की वाग्दत्ता। 

यहाँ ग्वाम का सीधा मतलब 
आवृत अ कार का अम स्वरूप ग कार के रूप में।
देवीभागवत में माँ के गंड स्थल ओर योनि की बात है।  उसीका अयन करना, मतलब किसीका अर्क या निष्कर्ष लेना या कराना।

सामाजिक रूपमे पूर्ण शब्द ग्वामयन यज्ञ



अतिरात्र यज्ञ 

गुजरात मे गरबा प्रचलित है। और संस्कृत में उसे अहोरात्र कहते है। जो नौ दिन तक देवी की पूजा अर्चना में चैत्र ओर आसो महीने में होते है। 
जब घटोत्कच युद्ध मे था तब रात्रि युद्ध हुआ था। तब राक्षसी माया का सामना करना भारी था। 
उसी को एक दिन को अतिरात्र यज्ञ कहा है।
अति मतलब ज्यादा 
इर अत्र मतलब  त्रिगुणातीत गुणः त्रयी अवस्था वाला शरीर , जो अंधकारमय अवस्था मे होता है।
इसीसे धर्म की स्थापना के लिये कर्ण को शक्ति से घटोत्कच का हनन करने हेतु कृष्ण ने दुर्योधन को मजबूर किया कि जिससे धर्म क्षेत्र की स्थापना में र आयामित राक्षस क्षेत्र सीमित मात्रा में ही रहे।
घटोत्कच शब्द भी विशेष है।



वाजपेय यज्ञ
वा ज ई पय

वा मतलब लेफ्ट साइड। अघोर पंथी में वाम मार्गीय गुप्त साधना पथ प्रचलित शब्द है। स्त्री का एक नाम संस्कृत में वामा भी है। जिसे पत्नी कह सकते है। ब्रह्मा को स्त्रष्टा कहा है। यहां शब्द अनुसंधान विशिष्ट है। वा मतलब डाबी बाजू होना पर अ कार युक्त निर्देशन में पश्य होकर।

"ज' मतलब "वह हे ही" ऐसे बल पूर्वक या भारपूर्वक अपनी बात को रखने की बात या उसके प्रचार की बात। ज खास कर जल शब्द को ज्यादा प्रचलित करता है। पानी का प्रभुत्व दुनिया मे 70% है।

उदाहरण ज के लिये पानी जैसा भाव जो बहता हुआ है पृथ्वी पर, व्योममे ओर यहां तक कि उत्तर और दक्षिण  ध्रुवों के पास भी कुछ मात्रा में भाव बहने का है ही।
यहां मतलब उदाहरण रूपसे देखे तो वाक्य प्रयोग। 
द्विजा जिगर की ही पुत्री है।

ई मतलब इच्छा। संस्कृत मातृका ओर अग्नि पुराण एकाक्षर कोष के तहत।

"पय" का मतलब पंच महाभूत का यजन होता है पर पय का मतलब अर्क या निष्कर्ष भी है।

वाजपेय मतलब वाममार्गीय जो दिखते नही पर है ही उनके समग्र  जीवन दरम्यान के सत्व गुण अर्क को परम् सत तत्व में जुड़ने जुड़ाने की बात का यज्ञ।



अग्निजित् यज्ञ 

अग्नि को जीतना मतलब समझने में कुछ ऐसा होगा। शरीर एक कायास्थ अग्नि है जो हमारे चेतन तत्व से चलता है। हमारी वाणी भी अग्नि से ही चलायमान है। हमारे शब्दाक्षर, वाक्य प्रयोग पर सिर्फ हमारा प्रभुत्व रहे ऐसे सोचके किया जाने वाला यज्ञ।

इसके अलावा भी कई यज्ञ है जिसमे से कुछ इस प्रकार है.....
जपनाम यज्ञ
देव यज्ञ
ब्रह्म यज्ञ
संयम यज्ञ
इन्द्रिय यज्ञ
आत्म यज्ञ
द्रव्य यज्ञ
स्वाध्याय यज्ञ
ज्ञान यज्ञ
प्राण यज्ञ
आहार यज्ञ
दान यज्ञ
विश्व जीत यज्ञ
नरमेघ यज्ञ
गौ मेघ यज्ञ
सर्व मेघ यज्ञ (12 प्रकार के मेघ होते है)



Jay Gurudev Dattatreya and Jay Hind

जिगर महेता / जैगीष्य

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