नवरात्रि में कई लोग प्रसाद नही लेते पर आखिर नवम दिन में प्रसाद शब्द की बजाय नैवेद्य शब्द प्रयोगात्मक रूपसे लेते है। जिसका भाववाही मतलब खूब उच्च है। अग्निपुराण एकाक्षर कोष, संधि एवम संस्कृत मातृका से विचार विस्तार शब्द का देखें तो कुछ इस तरह समझ मिलती है।
प्रासादास्य प्रसादम नैवेद्य
घर का प्रसाद नैवेद्य
"नैवेद्य" शब्द समझ
"न" मतलब किसीभी वस्तु ऊर्जा के साथ जुड़ा हुआ मैं, हम या हमारा कुछ छोटा सा वजूद।
ऐ स्वर बीजमन्त्र में प्रचलित है जो ऐश्वर्य से जुड़ा है।
नै=हमारा ऐश्वर्य
व मतलब कुछ या किसीका भी औचित्यमय तेज जो ढंका या आवृत या स्पष्ट रूपसे दिखाई न देता हो ऐसे।
ए स्वर भी बीजमन्त्र में प्रचलित है।
वे=जो ढंका हुआ आवृत है।
"द" ब्रह्मा ने दिया हुआ है, जीसका प्रावधान सूरासुर यज्ञ प्रावधान के हिसाब से कई किताब में लिखा हुआ मिलेगा।
"य" मतलब यजन जो हम यज्ञ याग से ओर पारसी लोग यास्ना या याजना से पहचानते है वह।
दोनों का जुड़ा संधि शब्द "द्य"...
"द्य"+
उसका ब्रह्मा के दिये "द" अक्षर का हमारा यजन
प्रसाद रूपमें पक्व अन्न किया हुआ नवल रात्री में किसीभी वेध या न्यास बगैर खाने योग्य भोज्य खाद्य पदार्थ जो वेद के सुकृत मान्य अपौरुषेय देव को राजी रखने हेतुक सभी के साथ खाने की बात।
जिससे दारिद्र्य मिटे, कटे सब पीड़ा।
नीचे आरती ओर आश्का की बात समज़ाती लिंक दी है। सानुकूल परिस्थिति में अगर पढ़े तो अच्छा है, ज्ञानवर्धक है। कृपा बुद्धि की जय।
यहां अन्नकूट शब्द नही लिया जाता। अन्नकूट में तो देवों कोभी चयन करके खाने की उनकी भी परीक्षा होती है।
जैन जिसे आयंबिल कहते है वैसे ही पर थोड़ा अलग हर किसम का खाद्य, कुँजम कुँजम, हर सजीव के लिये बना हुआ, जो भांप युक्त, तला हुआ, शेका हुआ, सूर्यपाक कला से निकाला हुआ, स्निग्ध ओर शुष्क भी हो वैसा हमारी अभ्यर्थना से जो वेदीक देव अपौरुषेय रूप में है वह हमें भोज्य के बाद कृपासार बनाये।
ओर तभी माँ शब्द संधान होता है।
जय गुरुदेव दत्तात्रेय
जय हिंद
जिगर महेता / जैगीष्य
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