Friday 21 August 2020

ध्रुवकृत भगवत्स्तुति

ध्रुवकृतभगवत्स्तुतिः

ध्रुव उवाच

योऽन्तः प्रविश्य मम वाचमिमां प्रसुप्तां
सञ्जीवयत्यखिलशक्तिधरः स्वधाम्ना।
अन्यांश्च हस्तचरणश्रवणत्वगादीन्
प्राणान्नमो भगवते पुरुषाय तुभ्यम्॥१॥

एकस्त्वमेव भगवन्निदमात्मशक्त्या
मायाख्ययोरुगुणया महदाद्यशेषम्।
सृष्ट्वानुविश्य पुरुषस्तदसद्गुणेषु
नानेव दारुषु विभावसुवद् विभासि॥२॥

त्वद्दत्तया वयुनयेदमचष्ट विश्वं
सुप्तप्रबुद्ध इव नाथ भवत्प्रपन्नः।
तस्यापवर्ग्यशरणं तव पादमूलं
विस्मर्यते कृतविदा कथमार्तबन्धो॥३॥

नूनं विमुष्टमतयस्तव मायया ते
ये त्वां भवाप्ययविमोक्षणमन्यहेतोः।
अर्चन्ति कल्पकतरुं कुणपोपभोग्य-
मिच्छन्ति यत्स्पर्शजं निरयेऽपि नृणाम् ॥४॥

या नि:वृतिस्तनुभृतां तव पादपद्म
ध्यानाद् भवज्जनकथाश्रवणेन वा स्यात्।
सा ब्रह्मणि स्वमहिमन्यपि नाथ मा भूत्
किं त्वन्तकासिलुलितात् पततां विमानात् ॥५॥

भक्ति मुहुः प्रवहतां त्वयि मे प्रसङ्गो
भूयादनन्त महताममलाशयानाम।
येनाञ्जसोल्बणमुरुव्यसनं भवाब्धिं
नेष्ये भवद्गुणकथामृतपानमत्तः ॥६॥

ते न स्मरन्त्यतितरां प्रियमीश मर्त्यम
ये चान्वदः सुतसुहृद्गृहवित्तदाराः।
ये त्वब्जनाभ भवदीयपदारविन्द-
सौगन्ध्यलुब्धहृदयेषु कृतप्रसङ्गाः॥७॥

तिर्यङ्नगद्विजसरीसृपदेवदैत्य-
मर्त्यादिभिः परिचितं सदसद्विशेषम्।
रूपं स्थविष्ठमज ते महदाद्यनेकं
नातः परं परम वेद्मि न यत्र वादः॥८॥

कल्पान्त एतदखिलं जठरेण गृह्णन्
शेते पुमान् स्वदृगनन्तसखस्तदङ्के।
यन्नाभिसिन्धुरुहकाञ्चनलोकपद्म-
गर्भे धुमान् भगवते प्रणतोऽस्मि तस्मै॥ १ ॥

त्वं नित्यमुक्तपरिशुद्धविबुद्ध आत्मा
कूटस्थ आदिपुरुषो भगवांस्त्र्यधीशः।
यद् बुद्ध्यवस्थितिमखण्डितया स्वदृष्ट्या
द्रष्टा स्थितावधिमखो व्यतिरिक्त आस्से॥१०॥

यस्मिन् विरुद्धगतयो ह्यनिशं पतन्ति
विद्यादयो विविधशक्तय आनुपूर्व्यात्।
तद् ब्रह्म विश्वभवमेकमनन्तमाद्य-
मानन्दमात्रमविकारमहं प्रपद्ये॥११॥

सत्याऽऽशिषो हि भगवंस्तव पादपद्म-
माशीस्तथानुभजतः पुरुषार्थमूर्तेः।
अप्येवमर्य भगवान् परिपाति दीनान्
वाश्रेव वत्सकमनुग्रहकातरोऽस्मान्॥१२॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे चतुर्थस्कन्धे नवमेऽध्याये
ध्रुवकृत भगवत्स्तुति: सम्पूर्णा ।

जय गुरुदेव दत्तात्रेय

जय हिंद

हिंदी अनुवाद

ध्रुवजी बोले-जो सर्वशक्तिसम्पन्न श्रीहरि मेरे अन्त:करणमें
प्रवेशकर अपने तेजसे मेरी इस सोयी हुई वाणीको सजीव करते हैं तथा हाथ, पैर, कान और त्वचा आदि अन्य इन्द्रियोंको भी चैतन्य प्रदान करते हैं, वे अन्तर्यामी भगवान् आप ही हैं, आपको प्रणाम है॥१॥

भगवन्! आप अकेले ही अपनी अनन्त गुणमयी मायाशक्तिसे इस महदादि सम्पूर्ण जगत्को रचकर उसके इन्द्रियादि असत् गुणोंमें जीवरूपसे अनुप्रविष्ट हो इस प्रकार अनेकवत् भासते हैं, जैसे नाना प्रकारके
काष्ठोंमें प्रकट हुई आग अपनी उपाधिजाके अनुसार भिन्न-भिन्न रूपसे भासती है॥२॥ 

हे नाथ! ब्रह्माजीने भी आपकी शरणमें आकर आपके दिये हुए ज्ञानके प्रभावसे इस जगत्को सोकर उठे हुए पुरुषके समान देखा था। हे दीनबन्धो! मुक्त पुरुषोंके भी आश्रय करनेयोग्य आपके चरणोंको कृतज्ञ पुरुष कैसे भूल सकता है? ॥३॥

जिनके संसर्गसे होनेवाला सुख नरकतुल्य योनिमें भी प्राप्त हो सकता है, उन शवतुल्य शरीरसे भोगे जानेयोग्य विषयोंकी जो पुरुष इच्छा करते हैं और जो जन्म-मरणरूप संसारसे छुड़ानेवाले कल्पवृक्षरूप आपकी मोक्षके सिवा किसी और हेतुसे उपासना करते हैं, अवश्य ही उनकी बुद्धिको आपकी मायाने ठग लिया है॥४॥ 

आपके चरणकमलोंका ध्यान करनेसे अथवा आपके भक्तोंकी कथाएँ सुननेसे प्राणियोंको जो आनन्द प्राप्त होता है, वह अपने स्वरूपभूत ब्रह्ममें भी नहीं मिल सकता है। फिर जिनको कालकी तलवार खण्डित कर डालती है, उन स्वर्गके विमानोंसे गिरनेवाले पुरुषोंको तो वह मिल ही कैसे सकता है।॥ ५॥ 

अत: हे अनन्त ! आपमें निरन्तर भक्तिभाव रखनेवाले
शुद्धचित्त महापुरुषोंसे ही मेरा बारंबार समागम हो, जिससे मैं आपके गुणोंके कथामृतका पान करनेसे उन्मत्त होकर अति उग्न और नाना प्रकारके दुःखोंसे पूर्ण इस संसार-सागरको सुगमतासे ही पार कर लूँ॥६॥ 

हे कमलनाभ! आपके चरणकमलोंकी सुगन्धमें जिनका चित्त लुभाया हुआ है, उन महापुरुषोंका जो लोग समागम करते हैं, हे ईश! वे अपने इस अत्यन्त प्रिय शरीर और इसके सम्बन्धी पुत्र, मित्र, गृह और स्त्री आदिका स्मरण भी नहीं करते॥७॥ 

हे अज! मैं तो पशु आदि तिर्यग्योनि, पर्वत, पक्षी, सर्प, देवता, दैत्य और मनुष्य आदिसे परिपूर्ण तथा महत्तत्वादि अनेकों कारणोंसे सम्पादित आपके इस सदसत्स्वरूप स्थूल शरीरको ही जानता हूँ। इसके परे जो आपका परम स्वरूप है, जिसमें वाणीकी गति नहीं है, उसको मैं नहीं जानता ॥८॥

हे नाथ! कल्पके अन्तमें जो स्वयंप्रकाश परमपुरुष भगवान् इस सम्पूर्ण जगत्को अपने उदरमें लीन करके शेषनागका सहारा ले उनकी गोदमें शयन करते हैं तथा जिनके नाभिसिन्धुसे प्रकट हुए सकल लोकोंके उत्पत्तिस्थान सुवर्णमय कमलसे परम तेजोमय ब्रह्माजी उत्पन्न हुए हैं, उन्हीं आप परमेश्वरको मैं प्रणाम करता हूँ॥९॥ 

हे प्रभो! आप जीवात्मासे भिन्न अर्थात् पुरुषोत्तम हैं; क्योंकि आप नित्यमुक्त, नित्यशुद्ध, चेतन, आत्मा, निर्विकार, आदिपुरुष, षडैश्वर्यसम्पन्न, तीनों लोकोंके स्वामी और अपनी दृष्टिसे बुद्धिकी अवस्थाओंको अखण्डरूपसे देखनेवाले हैं। संसारकी स्थितिके लिये ही आप यज्ञपुरुष श्रीविष्णुभगवान्के रूपसे स्थित हैं।॥१०॥ 

जिनसे विद्या, अविद्या आदि विरुद्ध गतियोंवाली
अनेक शक्तियाँ क्रमशः अहर्निश प्रकट होती हैं, उन विश्वकी उत्पत्ति करनेवाले एक, अनन्त, आद्य, आनन्दमात्र एवं निर्विकार ब्रह्मकी मैं शरण लेता हूँ॥११॥


हे भगवन्! 'आप परम पुरुषार्थस्वरूप हैं' ऐसा समझकर जो निष्काम-भावसे निरन्तर आपका भजन करते हैं, उन श्रेष्ठ भक्तोंके लिये राज्यादि भोगोंकी अपेक्षा पुरुषार्थस्वरूप आपके चरणकमलोंकी प्राप्ति ही भजनका यथार्थ फल है। यद्यपि यही ठीक है तो भी गौ जैसे अपने तुरंतके जन्मे हुए बछड़ेको दूध पिलाती और व्याघ्रादिसे बचाती है, उसी प्रकार भक्तोंपर अनुग्रह करनेके लिये सदा विकल रहनेवाले आप हम-जैसे सकाम भक्तोंको भी हमारी कामना पूर्ण करके संसारसागरसे बचाते हैं॥१२॥


इति श्रीमद्भागवते महापुराणे चतुर्थस्कन्धे नवमेऽध्याये
ध्रुवकृत भगवत्स्तुति: सम्पूर्णा ।

Additional Information....

सप्तर्षियों द्वारा भक्त ध्रुव को उपदेश

  • मरीचि बोले – ” हे राजपुत्र, बिना नारायण की आराधना किये मनुष्य को वह श्रेष्ठ स्थान नहीं मिल सकता अतः तू उनकी ही आराधना कर। “
  • अत्रि बोले – ” जो परा प्रकृति से भी परे हैं वे परमपुरुष नारायण जिससे संतुष्ट होते हैं उसी को वह अक्षय पद प्राप्त होता है, यह मैं एकदम सच कहता हूँ। “
  • अंगिरा बोले – ” यदि तू अग्रस्थान का इक्षुक है तो जिस सर्वव्यापक नारायण से यह सारा जगत व्याप्त है, तू उसी नारायण की आराधना कर। “
  • पुलस्त्य बोले – ” जो परब्रह्म, परमधाम और परस्वरूप हैं उन नारायण की आराधना करने से मनुष्य अति दुर्लभ मोक्षपद को भी प्राप्त कर लेता है। “
  • पुलह बोले – ” हे सुव्रत, जिन जगत्पति की आराधना से इन्द्र ने इन्द्रपद प्राप्त किया है तू उन यज्ञपति भगवान विष्णु की आराधना कर। “
  • क्रतु बोले – ” जो परमपुरुष यज्ञपुरुष, यज्ञ और योगेश्वर हैं, उन जनार्दन के संतुष्ट होने पर कौन सी वस्तु दुर्लभ रह जाती है। “
  • वसिष्ठ बोले – ” हे वत्स, विष्णु भगवान की आराधना करने पर तू अपने मन से जो कुछ चाहेगा वही प्राप्त कर लेगा, फिर त्रिलोकी के श्रेष्ठ स्थान की तो बात ही क्या है। “

ध्रुव ने कहा – ” हे महर्षिगण, आपलोगों ने मुझे आराध्यदेव तो बता दिया। अब कृपा करके मुझे यह भी बता दीजिये कि मैं किस प्रकार उनकी आराधना करूँ। “

ऋषिगण बोले – ” हे राजकुमार, तू समस्त बाह्य विषयों से चित्त को हटा कर उस एकमात्र नारायण में अपने मन को लगा दे और एकाग्रचित्त होकर ‘ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ‘ इस मंत्र का निरंतर जाप करते हुए उनको प्रसन्न कर। “

ध्रुव के नाम से ही उस दिव्य लोक को संसार में ध्रुव तारा के नाम से जाना जाता है।

ध्रुव का मतलब होता है स्थिर, दृढ़ , अपने स्थान से विचलित न होने वाला जिसे भक्त ध्रुव ने सत्य साबित कर दिया।

ध्रुव को सप्तऋषियो ने सुवाक्य से ॐ नमो नारायण मन्त्र नारद ऋषि तहत बताया था। नारद ऋषि अच्छे रहे।




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