Monday 24 August 2020

श्रीमृत्युञ्जयस्तोत्रम्

श्रीमृत्युञ्जयस्तोत्रम्


रत्नसानुशरासनं रजताद्रिशृङ्गनिकेतनं
शिञ्जिनीकृतपन्नगेश्वरम अच्युतानलसायकम्।
क्षिप्रदग्धपुरत्रयं त्रिदशालयैरभिवन्दितं
चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः॥१॥

पञ्चपादपपुष्पगन्धि पदाम्बुज द्वयशोभितं
भाललोचनजातपावक दग्धमन्मथविग्रहम्।
भस्मदिग्धकलेवरं भवनाशिनं भवमव्ययं
चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः॥२॥

मत्तवारणमुख्यचर्मकृतोत्तरीय मनोहर
पङ्कजासनपद्मलोचन पूजिताघ्रिसरोरुहम्।
देवसिद्धतरङ्गिणी करसिक्त शीतजटाधरं
चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ॥ ३॥

कुण्डलीकृतकुण्डलीश्वरकुण्डलं वृषवाहनं
नारदादिमुनीश्वर स्तुतवैभवं भुवनेश्वरम्।
अन्धकान्तकमाश्रितामरपादपं शमनान्तकं
चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः॥४॥

यक्षराजसखं भगाक्षिहरं भुजङ्गविभूषणं
शैलराजसुतापरिष्कृत चारुवामकलेवरम्।
क्ष्वेडनीलगलं परश्वधधारिणं मृगधारिणं
चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः॥५॥

भेषजं भवरोगिणाम अखिलापदाम अपहारिणं
दक्षयज्ञविनाशिनं त्रिगुणात्मकं त्रिविलोचनम्।
भुक्तिमुक्तिफलप्रदं निखिलाघ संघनिबर्हणम 
चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः॥६॥

भक्तवत्सलमर्चतां निधिमक्षयं हरिदम्बरं
सर्वभूतपतिम परात्पर: अप्रमेयमनूपमम्।
भूमिवारिनभोहुताशन सोमपालितस्वाकृतिं
चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः॥७॥

विश्वसृष्टिविधायिनं पुनरेव पालनतत्परं
संहरन्तमथ प्रपञ्चम शेषलोकनिवासिनम्।
क्रीडयन्तमहर्निशं गणनाथयूथसमावृतं
चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः॥ ८ ॥

रुद्रं पशुपतिं स्थाणुं नीलकण्ठमुमापतिम्।
नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति॥ ९ ॥

कालकण्ठं कलामूर्ति कालाग्निं कालनाशनम्।
नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति ॥१०॥

नीलकण्ठं विरूपाक्षं निर्मलं निरुपद्रवम्।
नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति॥११॥

वामदेवं महादेवं लोकनाथं जगद्गुरुम्।
नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति ॥१२॥

देवदेवं जगन्नाथं देवेशमृषभध्वजम्।
नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति ॥१३॥

अनन्तमव्ययं शान्तमक्षमालाधरं हरम्।
नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति ॥ १४ ॥

आनन्दं परमं नित्यं कैवल्यपदकारणम्।
नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति ॥१५॥

स्वर्गापवर्गदातारं सृष्टिस्थित्यन्तकारिणम्।
नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति ॥ १६ ॥


इति श्रीपद्मपुराणान्तर्गत उत्तरखण्डे श्रीमृत्युञ्जयस्तोत्रं सम्पूर्णम्



हिंदी भावानुवाद

कैलासके शिखरपर जिनका निवासगृह है, जिन्होंने मेरुगिरिका धनुष, नागराज वासुकिकी प्रत्यंचा और भगवान् विष्णुको अग्निमय बाण बनाकर तत्काल ही दैत्योंके तीनों पुरोंको दग्ध कर डाला था, सम्पूर्ण देवता जिनके चरणोंकी वन्दना करते हैं, उन भगवान्च न्द्रशेखरकी मैं शरण लेता हूँ। 
यमराज मेरा क्या करेगा? ॥ १॥ 

मन्दार, पारिजात, संतान, कल्पवृक्ष और हरिचन्दन-इन पाँच दिव्य वृक्षोंके पुष्पोंसे सुगन्धित युगल चरणकमल जिनकी शोभा बढ़ाते हैं, जिन्होंने अपने ललाटवर्ती नेत्रसे प्रकट हुई आगकी ज्वालामें कामदेवके शरीरको भस्म कर डाला था, जिनका श्रीविग्रह सदा भस्मसे विभूषित रहता है, जो भव-सबकी उत्पत्तिके कारण होते हुए भी भव-संसारके नाशक हैं तथा जिनका कभी विनाश नहीं होता, उन भगवान् चन्द्रशेखरकी मैं शरण लेता हूँ।
यमराज मेरा क्या करेगा? ॥२॥

जो मतवाले गजराजके मुख्य चर्मकी चादर ओढ़े परम मनोहर जान पड़ते हैं, ब्रह्मा और विष्णु भी जिनके चरण कमलोंकी पूजा करते हैं तथा जो देवताओं और सिद्धोंकी नदी गंगाकी तरंगोंसे भीगी हुई शीतल जटा धारण करते हैं उन भगवान् चन्द्रशेखरकी मैं शरण लेता हूँ। 
यमराज मेरा क्या करेगा ? ॥ ३॥ 

गेडुल मारे हुए सर्पराज जिनके कानोंमें कुण्डलका काम देते हैं, जो वृषभपर सवारी करते हैं, नारद आदि मुनीश्वर जिनके वैभवकी स्तुति करते हैं, जो समस्त भुवनोंके स्वामी, अन्धकासुरका नाश करनेवाले, आश्रितजनोंके लिये कल्पवृक्षके समान और यमराजको भी शान्त करनेवाले हैं, उन भगवान् चन्द्रशेखरकी मैं शरण लेता हूँ। यमराज मेरा क्या करेगा?॥ ४॥

जो यक्षराज कुबेरके सखा, भग देवताकी आँख फोड़नेवाले और सर्पोकेआभूषण धारण करनेवाले हैं, जिनके श्रीविग्रहके सुन्दर वामभागको गिरिराजकिशोरी उमाने सुशोभित कर रखा है, कालकूट विष पीनेके कारण जिनका कण्ठभाग नीले रंगका दिखायी देता है, जो एक हाथमें फरसा और दूसरेमें मृग लिये रहते हैं, उन भगवान् चन्द्रशेखरकी मैं शरण लेता हूँ। 
यमराज मेरा क्या करेगा ?॥५॥ 

जो जन्म-मरणके रोगसे ग्रस्त पुरुषोंके लिये औषधरूप हैं, समस्त आपत्तियोंका निवारण और दक्ष- यज्ञका विनाश करनेवाले हैं, सत्त्व आदि तीनों गुण जिनके स्वरूप हैं, जो तीन नेत्र धारण करते, भोग और मोक्षरूपी फल देते तथा सम्पूर्ण पापराशिका संहार करते हैं, उन भगवान् चन्द्रशेखरकी मैं शरण लेता हूँ। 
यमराज मेरा क्या करेगा ?॥६॥ 

जो भक्तोंपर दया करनेवाले हैं, अपनी पूजा करनेवाले मनुष्योंके लिये अक्षय निधि होते हुए भी जो स्वयं दिगम्बर रहते हैं, जो सब भूतोंके स्वामी, परात्पर, अप्रमेय और उपमारहित हैं, पृथ्वी, जल, आकाश, अग्नि और चन्द्रमाके द्वारा जिनका श्रीविग्रह सुरक्षित है, उन भगवान्च न्द्रशेखरकी मैं शरण लेता हूँ। 
यमराज मेरा क्या करेगा ? ॥७॥ 

जो ब्रह्मारूपसे सम्पूर्ण विश्वकी सृष्टि करते, फिर विष्णुरूपसे सबके पालनमें संलग्न रहते और अन्तमें सारे प्रपंचका संहार करते हैं, सम्पूर्ण लोकोंमें जिनका निवास है तथा जो गणेशजीके पार्षदोंसे घिरकर दिन-रात भाँति-भाँतिके खेल किया करते हैं, उन भगवान् चन्द्रशेखरकी मैं शरण लेता है। 
यमराज मेरा क्या करेगा ? ॥ ८॥

'रु' अर्थात् दुःखको दूर करनेके कारण जिन्हें रुद्र कहते हैं, जो जीवरूपी पशुओंका पालन करनेसे पशुपति, स्थिर होनेसे स्थाणु, गलेमें नीला चिह्न धारण करनेसे नीलकण्ठ और भगवती उमाके स्वामी होनेसे उमापति नाम धारण करते हैं, उन भगवान् शिवको मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ। 
मृत्यु मेरा क्या कर लेगी ?॥९॥ 

जिनके गलेमें काला दाग है, जो कलामूर्ति, कालाग्निस्वरूप और कालके नाशक हैं, उन भगवान् शिवको मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ। 
मृत्यु मेरा क्या कर लेगी ? ॥ १० ॥ 

जिनका कण्ठ नील और नेत्र विकराल होते हुए भी जो अत्यन्त निर्मल और उपद्रवरहित हैं, उन भगवान मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ। 
मृत्यु मेरा क्या कर लेगी? ॥११॥

जो वामदेव, महादेव, विश्वनाथ और जगद्गुरु नाम धारण करते हैं, उन भगवान् शिवको मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ। 
मृत्यु मेरा क्या कर लेगी?॥१२॥ 

जो देवताओंके भी आराध्यदेव, जगत्के स्वामी और देवताओंपर भी शासन करनेवाले हैं, जिनकी ध्वजापर वृषभका चिह्न बना हुआ है, उन भगवान् शिवको मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ। 
मृत्यु मेरा क्या कर लेगी?॥१३॥ 

जो अनन्त, अविकारी, शान्त, रुद्राक्षमालाधारी और सबके दुःखोंका हरण करनेवाले हैं, उन भगवान् शिवको मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ। 
मृत्यु मेरा क्या कर लेगी ? ॥ १४॥ 

जो परमानन्दस्वरूप, नित्य एवं कैवल्यपद-मोक्षकी प्राप्तिके कारण हैं, उन भगवान् शिवको मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ। 
मृत्यु मेरा क्या कर लेगी ? ॥ १५॥ 

जो स्वर्ग और मोक्षके दाता तथा सृष्टि, पालन और संहारके कर्ता हैं, उन भगवान् शिवको मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ। 
मृत्यु मेरा क्या कर लेगी? ॥१६॥

people mostly knows very kind of sense mahamrityunjay mantra ..as mahakaal mantra. 

Ancient origins of sanskrut, They are not using word as Shree Mahakaal...but here we can see Shree Maha Mrutyunjaya Mantra or Stotram from Padma Purana...

Now presently we seen the stotram and that is not related with mahamrityunjay mantra but it is differently appear and henceforth it's considered as Shri Mrutyunjaya stotram... 

Mahakaal is is giving you death henceforth not saying Shri Mahakaal but always use to say JAY Mahakaal...

Yes here we can say the word Shri it is most important thing with this stotra as so many mantra and sentences in Sanskrut and few are called as Shri mantra... this one of these slokas are considered as stotram and most of that consider as Shri stotram 

Another sense we can see that in Sanskrut mrutyu also considered as Shri means... what we can say ... a pujniya or spiritual death ... We all are can accept that death is unique for all means Human, animal, birds, insects, bacteria, viruses ... death is / are mostly accepted by everyone but we can avoid by us on such way if we have done good karmas ... and for that need any one's  yajan ... By heart... We can say by full of Aatmashraddhaa...

We can give so many examples on same...

Gujarati proverbs is famous for same... Shulee no ghaa, Soy thi Tali gayo...
If you want to understand this proverbs,  
Read the sentence...
major problems could be downgrade by minor precautions... And if you have wear rubber slipper, it can saves you from electricity... or if you wearing glasses on eyes, it's saving you from sun rays..

For such conditions you need to take precautions in Life... at such you need to pray any one god and if not than god's family and if there are any troubles with you any 9f that family one will be came to save your life from problem...

Lord Shiva, goddess Parvati, Ganesh, Karthikeya, Riddhi siddhi, laabh, shubh whatever available can save your life but you need to do the stotram regular... along with good karmas....

JAY Gurudev Dattatreya

Jay Hind...

Jigar Mehta / Jaigishya

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