Friday, 21 August 2020

चर्पटपञ्जरिकास्तोत्रम् च डुकृञ् करणे

७७-चर्पटपञ्जरिकास्तोत्रम् च डुकृञ् करणे

दिनमपि रजनी सायं प्रातः शिशिरवसन्तौ पुनरायातः।
कालः क्रीडति गच्छत्यायुस्तदपि न मुञ्चत्याशावायुः॥१॥
भज गोविन्दं भज गोविन्दं भज गोविन्दं मूढमते।
प्राप्ते सन्निहिते मरणे नहि नहि रक्षति डुकृञ् करणे॥
(ध्रुवपदम्)

अग्रे वह्निः पृष्ठे भानू रात्रौ चिबुकसमर्पितजानुः।
करतलभिक्षा तरुतलवासस्तदपि न मुञ्चत्याशापाशः। भज०॥२॥

यावद्वित्तोपार्जनसक्तस्तावन्निजपरिवारो रक्तः।
पश्चाद्धावति जर्जरदेहे वार्ता पृच्छति कोऽपि न गेहे। भज०॥३॥

जटिलो मुण्डी लुञ्चितकेशः काषायाम्बरबहुकृतवेषः।
पश्यन्नपि च न पश्यति लोको ह्युदरनिमित्तं बहुकृतशोकः । भज०॥४॥

भगवद्गीता किञ्चिदधीता गङ्गाजललवकणिकापीता।
सकृदपि यस्य मुरारिसमर्चा तस्य यमः किं कुरुते चर्चाम्। भज०॥५॥

अङ्गं गलितं पलितं मुण्डं दशनविहीनं जातं तुण्डम्।
वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं तदपि न मुञ्चत्याशा पिण्डम्। भज०॥६॥

बालस्तावत्क्रीडासक्तस्तरुणस्तावत्तरुणीरक्तः
वृद्धस्तावच्चिन्तामग्नः पारे ब्रह्मणि कोऽपि न लग्न : । भज०॥ ७ ॥

पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननीजठरे शयनम्।
इह संसारे खलु दुस्तारे कृपयापारे पाहि मुरारे। भज०॥ ८ ॥

पुनरपि रजनी पुनरपि दिवस: पुनरपि पक्षः पुनरपि मासः।
पुनरप्ययनं पुनरपि वर्षं तदपि न मुञ्चत्याशामर्षम्। भज०॥ ९ ॥

वयसि गते कः कामविकारः शुष्के नीरे कः कासारः।
नष्टे द्रव्ये कः परिवारो ज्ञाते तत्त्वे कः संसारः। भज०॥१०॥

नारीस्तनभरनाभिनिवेशं मिथ्यामायामोहावेशम्।
एतन्मांसवसादिविकारं मनसि विचारय बारम्बारम्। भज०॥११॥

कस्त्वं कोऽहं कुत आयातः का मे जननी को मे तातः।
इति परिभावय सर्वमसारं विश्वं त्यक्त्वा स्वप्नविचारम्। भज० ॥१२॥

गेयं गीतानामसहस्त्रं ध्येयं श्रीपतिरूपमजस्त्रम्।
नेयं सज्जनसङ्गे चित्तं देयं दीनजनाय च वित्तम्। भज०॥१३॥

यावज्जीवो निवसति देहे कुशलं तावत्पृच्छति गेहे।
गतवति वायौ देहापाये भार्या बिभ्यति तस्मिन्काये। भज०॥१४॥

सुखतः क्रियते रामाभोगः पश्चाद्धन्त शरीरे रोगः।
यद्यपि लोके मरणं शरणं तदपि न मुञ्चति पापाचरणम्। भज०॥ १५॥

रथ्याचर्पटविरचितकन्थः पुण्यापुण्यविवर्जितपन्थः।
नाहं न त्वं नायं लोकस्तदपि किमर्थं क्रियते शोकः । भज०॥ १६॥

कुरुते गङ्गासागरगमनं व्रतपरिपालनमथवा दानम्।
ज्ञानविहीनः सर्वमतेन मुक्ति न भजति जन्मशतेन। भज० ॥१७॥

इति श्रीशङ्कराचार्यविरचितं चर्पटपञ्जरिकास्तोत्रं सम्पूर्णम्।

जय गुरुदेव दत्तात्रेय

जय हिंद


हिंदी भावानुवाद


दिन और रात, सायंकाल और प्रात:काल, शिशिर और वसन्त पुन:-पुनः आते हैं; इसी प्रकार कालकी लीला होती रहती है और आयु बीत जाती है, किन्तु आशारूपी वायु छोड़ती ही नहीं; अत: हे मूढ! निरन्तर गोविन्दको
ही भज, क्योंकि मृत्युके समीप आनेपर 'डुकृञ् करणे'* यह रटना रक्षा नहींकर सकेगी॥१॥

दिनमें आगे अग्नि और पीछे सूर्यसे शरीर तपाते हैं, रात्रिकेसमय जानुओंमें ठोड़ी दबाये पड़े रहते हैं, हाथमें ही भिक्षा माँग लाते हैं, वृक्षके तले ही पड़े रहते हैं, फिर भी आशाका जाल जकड़े ही रहता है; अत: हे मूढ ! निरन्तर गोविन्दको ही भज, क्योंकि मृत्युके समीप आनेपर 'डुकृञ् करणे' यह रटना रक्षा नहीं कर सकेगी॥२॥ 

अरे, जबतक तूधन कमानेमें लगा हुआ है तभीतक तेरा परिवार तुझसे प्रेम करता है, जब जराग्रस्त होगा तो घरमें कोई बात भी न पूछेगा; अतः हे मूढ ! निरन्तर गोविन्दको ही भज, क्योंकि मृत्युके समीप आनेपर 'डुकृञ् करणे' यह रटना रक्षा न कर सकेगी॥३॥ 

जटाजूटधारी होकर, मुण्डित होकर, लुंचितकेश होकर, काषायाम्बरधारी होकर, ऐसे नाना प्रकारके वेष धारण करके यह मनुष्य देखता हुआ भी नहीं देखता और पेटके लिये ही नाना प्रकारसे शोक किया करता है; अतः हे मूढ ! निरन्तर गोविन्दको ही भज, क्योंकि मृत्युके समीप आनेपर यह 'डुकृञ् करणे' रटना रक्षा न कर सकेगी॥४॥ 

जिसने भगवद्गीताको कुछ भी पढ़ा है, गंगाजलकी जिसने
एक बूंद भी पी है, एक बार भी जिसने भगवान् कृष्णचन्द्रका अर्चन किया है, उसकी यमराज क्या चर्चा कर सकता है? अत: हे मूढ! निरन्तर गोविन्दको ही भज, क्योंकि मृत्युके समीप आनेपर 'डुकृञ् करणे' रटना
रक्षा न कर सकेगी॥५॥ 

अंग गलित हो गये, सिरके बाल पक गये, मुखमें दाँत नहीं रहे, बूढ़ा हो गया, लाठी लेकर चलने लगा, फिर भी आशा पिण्ड नहीं छोड़ती; अरे मूढ! निरन्तर गोविन्दको भज, क्योंकि मृत्युके समीप आनेपर 'डुकृञ् करणे' रटना रक्षा न कर सकेगी॥६॥


बालक तो खेल-कूदमें आसक्त रहता है, तरुण तो स्त्रीमें आसक्त है और वृद्ध भी नाना प्रकारकी चिन्ताओंमें मग्न रहता है, परब्रह्ममें तो कोई संलग्न नहीं होता; अत: अरे मूढ! तू सदा गोविन्दका ही भजन कर, क्योंकि मृत्युके समीप आनेपर 'डुकृञ् करणे' यह रटना रक्षा न कर
सकेगी॥७॥ 

इस संसारमें पुनः-पुन: जन्म, पुनः-पुन: मरण और बारंबार माताके गर्भ में रहना पड़ता है, अत: है मुरारे! मैं आपकी शरण हूँ, इस दुस्तर और अपार संसारसे कृपया पार कीजिये; इस प्रकार अरे मूढ! तू तो सदा गोविन्दका ही भजन कर, क्योंकि मृत्युके समीप आनेपर 'डुकृञ्
करणे' यह रटना रक्षा न कर सकेगी॥८॥

रात्रि, दिन, पक्ष, मास, अयन और वर्ष कितनी ही बार आये और गये तो भी लोग ईर्ष्या और आशाको नहीं छोड़ते, अत: अरे मूढ ! तू सदा गोविन्दका भजन कर, क्योंकि मृत्युके समीप आनेपर यह 'डुकृञ् करणे' रटना रक्षा न कर सकेगी॥९॥


अवस्था ढलनेपर काम-विकार कैसा ? जल सूखनेपर जलाशय क्या ? तथा धन नष्ट होनेपर परिवार ही क्या ? इसी प्रकार तत्त्वज्ञान होनेपर संसार ही कहाँ रह सकता है ? अतः हे मूढ ! सदा गोविन्दको भज, क्योंकि मृत्युके समीप आनेपर यह 'डुकृञ् करणे' रटना रक्षा न कर सकेगी॥१०॥


नारीके स्तनों और नाभिनिवेशमें मिथ्या माया और मोहका ही आवेश है, ये मांस और मेदके ही विकार हैं-ऐसा बार-बार मनमें विचार, हे मूढ! सदा गोविन्दका भजन कर, क्योंकि मृत्युके समीप आनेपर यह 'डुकृञ् करणे' रटना रक्षा न कर सकेगी॥११॥ 

स्वप्नवत् मिथ्या संसारकी आस्था छोड़कर 'तू कौन है, मैं कौन हूँ कहाँसे आया हूँ, मेरी माता कौन है और पिता कौन है ?'-इस प्रकार सबको असार समझ तथा हे मूढ ! निरन्तर गोविन्दका भजन कर, क्योंकि मृत्युके निकट आनेपर 'डुकृञ् करणे' यह रटना रक्षा न कर सकेगी।॥ १२॥ 

गीता और विष्णुसहस्रनामका नित्य पाठ करना चाहिये, भगवान् विष्णुके स्वरूपका निरन्तर ध्यान करना चाहिये, चित्तको संतजनोंके संगमें लगाना चाहिये और दीनजनोंको धन दान करना चाहिये और हे मूढ ! नित्य गोविन्दका ही भजन कर, क्योंकि मृत्युके निकट आनेपर 'डुकृञ् करणे' यह रटना रक्षा न कर सकेगी॥ १३॥ 

जबतक प्राण शरीरमें है तबतक ही लोग घरमें कुशल पूछते हैं, प्राण निकलनेपर शरीरका पतन हुआ कि फिर अपनी स्त्री भी उससे भय मानती है; अत: हे मूढ ! नित्य गोविन्दको ही भज, क्योंकि मृत्युके निकट आनेपर 'डुकृञ् करणे' यह रटना रक्षा न कर सकेगी॥१४॥ 

पहले तो सुखसे स्त्री-सम्भोग किया जाता है, किन्तु पीछे शरीरमें रोग घर कर लेते हैं, यद्यपि संसारमें मरना अवश्य है तथापि लोग पापाचरणको नहीं छोड़ते; अत: हे मूढ! सदा गोविन्दका भजन कर, क्योंकि मृत्युके निकट आनेपर 'डुकृञ् करणे' यह रटना रक्षा न कर सकेगी ॥ १५ ॥ 

गलीमें पड़े चिथड़ोंकी कन्था बना ली, पुण्यापुण्यसे निराला मार्ग अवलम्बन कर लिया, 'न मैं हूँ, न तू है और न यह संसार है'-(ऐसा भी जान लिया), फिर भी किस लिये शोक किया जाता है? अतः हे मूढ ! सदा गोविन्दका भजन कर, क्योंकि मृत्युके निकट आनेपर 'डुकृञ् करणे' यह रटना रक्षा न कर सकेगी॥१६॥ 

चाहे गंगा-सागरको जाय, चाहे नाना व्रतोपवासोंका पालन अथवा दान करे तथापि बिना ज्ञानके इन सबसे सौ जन्ममें भी मुक्ति नहीं हो सकती; अत: हे मूढ ! सर्वदा
गोविन्दका भजन कर, क्योंकि मृत्युके निकट आनेपर 'डुकृञ् करणे' (अथवा हा धन! हा कुटुम्ब!! हा संसार!!!) यह रटना रक्षा न कर संकेगी॥१७॥


* व्याकरणमें 'डुकृञ् करणे' एक धातु है, इसे एक ब्राह्मणको वृद्ध होनेपर भी रटते देखकर श्रीशंकराचार्यजीने यह उपदेश किया।

इति श्रीशङ्कराचार्यविरचितं चर्पटपञ्जरिकास्तोत्रं सम्पूर्णम्।


How we can understand the special words of sanskrut matruka level is most important question for these all shloks..
See and read same... Basically these all mantra are related to those who are moving or forwarding self with there 'ब' कार position or moving with half 'अ' position in Life...   or in 'च' कार position in Life.... All are sanskrut matruka's and Agni puran ekakshar kosh chapters related Matters...

'डुकृञ् करणे
(अथवा हा धन! हा कुटुम्ब!! हा संसार!!!) 

'डु' करणे (अथवा हा धन!(समय छूटने पर))

'कृ' करणे (अथवा हा कुटुम्ब! (समय छूटने पर))

'ञ्' करणे (अथवा  हा संसार! (समय छूटने पर))


Now see the word चर्पटपञ्जरिकास्तोत्रम्

चर्पट (संधि चर: + पट)
It's safe word as chalchitra or film or the world's theatre like constant changed by some how, and which is hidden or we are not in awareness of that..

पञ्जरिक अ or अ पञ्जरिक
It's like as registered or by laws or related with body's five elements... Or we can say like we are on earth with our body but what is happening inner side is unknown to us but it's happened only than we suffer from such conditions...

जय गुरुदेव दत्तात्रेय

जय हिंद

Jigar Mehta / Jaigishya

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